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'आसान नहीं'

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हँसी खुशी जीवन जी लेना इतना भी आसान कहाँ है ? मिले चार दिन ही जीने को फटी जिंदगी को सीने को मौत खरीदेगी कितने में, कीमत का अनुमान कहाँ है ? दुनिया एक बड़ी सी सहरा आठों पहर लगा है पहरा प्यास बुझा पाये ना कोई, सबको इसका भान कहाँ है ? लोग जहाँ से कदम बढ़ायें आखिर लौट वहीं पर आयें बात अचंभे वाली लगती, कोई भी हैरान कहाँ है ? ईच्छाओं का बोझ उठाकर अंगारों में झोंक जलाकर झुलस गयी चमड़ी माटी की, जिंदा अब ईंसान कहाँ है ? ✍ अनुकल्प तिवारी 'विक्षिप्त'

'अनंत की प्रतीक्षा में'

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प्रिय ! प्रतीक्षारत पथों पर ज्योति सम जीवन जला है। साधना पथ पर सतत चल काँपते कोमल चरण दल कुछ समझ ना आ रहा ,यह काल की कैसी कला है ? विरति से यह उर सना है किंतु सांसारिक बना है क्या करूँ  ,असमर्थता है भाग्य ने पग -पग छला है। मुक्त है मन बंधनों में दामिनी जैसे घनों में स्नेह -संचित-सर्व स्वप्नों में व्यथा पल-पल पला है। दर्शनोत्सुक दृग दलें हैं प्रेम आविल बावले हैं देख मेरी दुर्दशा को, कब तुम्हारा उर गला है ? © अनुकल्प तिवारी  'विक्षिप्त-साधक '

● अंतिम आह्वान ●

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लौट आओगे क्या तुम देव ? करूँगा जब अंतिम आह्वान। मृत्यु के महा -सिन्धु में डूब , लुप्त होने को होंगे प्राण सुप्त होने को होगा गात्र , और आकुल होंगे दृग -द्राण श्वास की ध्वनियों वाली वेणु , भुला देगी जब अपनी तान। सृष्टि के कोलाहल से हीन , शून्यता को करके स्वीकार श्वेत परिधान -पुष्ट  शुचि शांत , शुष्क काष्ठों का चुन आधार लेट जायेगी जब अनुभूति , अग्नि -शय्या पर कर अभिमान। अतः जब हो जायेगी नष्ट , भस्म बन भौतिकता की गंध मुक्त हो जायेंगे जब प्राण , भूलकर सकल सृष्टि -संबंध उसी क्षण महाद्वैतता हेतु , स्वयं में करने अंतर्ध्यान। लौट आओगे क्या तुम देव ? करूँगा जब अंतिम आह्वान। © अनुकल्प तिवारी 'विक्षिप्त '

● व्यर्थता ●

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व्यर्थ है जीवन चरण जब मृत्यु अन्त्य -प्रक्रिया है। गात्र का निर्माण करके चेतना औ ' प्राण भरके नाश कर देता वही क्यों यह सृजन जिसने किया है ? सौंपकर सुकुमार संसृति छीन लेते क्यों बना स्मृति शून्य है परिणाम जिसका देव ! यह कैसी क्रिया है ? मिथ्य है सुख के सभी क्षण तदपि लगते वर विलक्षण किंतु सत्यासत्य मैनें स्वयं को समझा दिया है। आह ! उर विक्षिप्त उर ने और उर के रिक्त सुर ने भूल कर आनंद , पीड़ा- मार्ग को अपना लिया है। व्यर्थ है जीवन चरण जब मृत्यु अन्त्य -प्रक्रिया है। © अनुकल्प तिवारी 'विक्षिप्तसाधक'

● हृदय का आदर्श ●

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हृदय का आदर्श टूटा सैकड़ों आदर्श बनकर। टूटने से इस हृदय की कर्णिकाओं में प्रणय की बढ़ गयी संख्या स्वतः ही देख , दुर्लभ दर्श बनकर। स्वांत में स्मृतियाँ पराजित हो रही क्षण क्षण विभाजित पुष्ट हो दुख के कणों में प्रश्न करती मर्श  बनकर। छोड़ मुझको चल दिये क्यों संग मेरे छल किये क्यों आर्य ! तुम तो व्याप्त थे न ? स्पंद में प्रतिदर्श बनकर। भस्म हो जाये भले तन या स्मरण द्रव में गले मन किंतु तुम संचित रहोगे नित्य प्राणस्पर्श बनकर। हृदय का आदर्श टूटा सैकड़ों आदर्श बनकर। © अनुकल्प तिवारी 'विक्षिप्तसाधक '

● कोकिला से ●

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कूक कर मीठे स्वरों में पूछ मत पीड़ा हृदय की कोकिला ! मैं क्या बताऊँ प्रीति निज कैसे जताऊँ जान पाया ही नहीं वह, भावना मेरे प्रणय की। आज रोने दो न रोको भूल जाने दो न टोको बाँट पाओगी नहीं तुम, वेदना विस्तृत निलय की। चल दिया वह छोड़ पथ पर बिन बताये,उर व्यथित कर अल्प भी आशा न थी इस, निठुर आगामी प्रलय की। व्यग्र उर ने तोड़ डाला लोचनों की स्वप्न माला क्योंकि अब तो व्यर्थ ही थी, सस्मिता स्वप्निल वलय की। कूक कर मीठे स्वरों में पूछ मत पीड़ा हृदय की। © अनुकल्प तिवारी 'विक्षिप्तसाधक'

● विराट करुणा ●

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••••••••••• बुद्धम् शरणं गच्छामि •••••••••• एक वन में वृक्ष के तल  बुद्ध बैठे थे अचंचल भर गया पदचाप से औचक  तभी वह दाव अँचल नील-नीरज-नेत्र वाले  बुद्ध ने देखा पुलककर, 'गडरिया था एक पीछे, अग्र चलते मेष के दल '। देखने से जान पड़ते  मेष संख्या में शताधिक हो रहा क्षण-क्षण तरंगित  सा सभी का पृष्ठ आविक मस्तकें नीचे सभी की स्फीत दिखते पुच्छ केवल, चल रहे इस भाँति मानों  हो गये हो क्लांत आधिक। रूपरेखा से गडरिया दृष्टिगत होता जरातुर चल रहा अतितीव्र निज गंतव्य पाने हेतु आतुर 'उदर से नीचे नितंभों जानु तक परिधान पूरित, केश श्वेताश्वेत ,मुख की आभ निस्प्रभ हो रही स्फुर '। मुख पटल पर दीप्त था संपूर्ण चिंता रेख मन का एक कर अंगोच्छ पकड़े  पोछता वह स्वेद तन का दूसरे कर में लिये दृढ़ दंड दल को हाँकता था, हाय ! अपने स्वार्थ में वह भूल जाता मर्म उनका। क्लांत हो संदोह से जो मेष पीछे छूट जाते ऊ र् र र्  की लंबी स्वरें सुन शीघ्रता से दौड़ आते युत्थ में कुछ दौड़ते, कुछ हाँफते, कुछ ठहरते थे किंतु जो गति से न चलते दंड से सम्मान पाते। वेगमय संदोह था, गतिशील थे सबके चरण...