'आसान नहीं'

हँसी खुशी जीवन जी लेना इतना भी आसान कहाँ है ? मिले चार दिन ही जीने को फटी जिंदगी को सीने को मौत खरीदेगी कितने में, कीमत का अनुमान कहाँ है ? दुनिया एक बड़ी सी सहरा आठों पहर लगा है पहरा प्यास बुझा पाये ना कोई, सबको इसका भान कहाँ है ? लोग जहाँ से कदम बढ़ायें आखिर लौट वहीं पर आयें बात अचंभे वाली लगती, कोई भी हैरान कहाँ है ? ईच्छाओं का बोझ उठाकर अंगारों में झोंक जलाकर झुलस गयी चमड़ी माटी की, जिंदा अब ईंसान कहाँ है ? ✍ अनुकल्प तिवारी 'विक्षिप्त'