'अनंत की प्रतीक्षा में'
प्रिय ! प्रतीक्षारत पथों पर
ज्योति सम जीवन जला है।
साधना पथ पर सतत चल
काँपते कोमल चरण दल
कुछ समझ ना आ रहा ,यह
काल की कैसी कला है ?
विरति से यह उर सना है
किंतु सांसारिक बना है
क्या करूँ ,असमर्थता है
भाग्य ने पग -पग छला है।
मुक्त है मन बंधनों में
दामिनी जैसे घनों में
स्नेह -संचित-सर्व स्वप्नों
में व्यथा पल-पल पला है।
दर्शनोत्सुक दृग दलें हैं
प्रेम आविल बावले हैं
देख मेरी दुर्दशा को,
कब तुम्हारा उर गला है ?
© अनुकल्प तिवारी 'विक्षिप्त-साधक '
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