● विराट करुणा ●
••••••••••• बुद्धम् शरणं गच्छामि ••••••••••
एक वन में वृक्ष के तल
बुद्ध बैठे थे अचंचल
भर गया पदचाप से औचक
तभी वह दाव अँचल
नील-नीरज-नेत्र वाले
बुद्ध ने देखा पुलककर,
'गडरिया था एक पीछे,
अग्र चलते मेष के दल '।
देखने से जान पड़ते
मेष संख्या में शताधिक
हो रहा क्षण-क्षण तरंगित
सा सभी का पृष्ठ आविक
मस्तकें नीचे सभी की
स्फीत दिखते पुच्छ केवल,
चल रहे इस भाँति मानों
हो गये हो क्लांत आधिक।
रूपरेखा से गडरिया
दृष्टिगत होता जरातुर
चल रहा अतितीव्र निज
गंतव्य पाने हेतु आतुर
'उदर से नीचे नितंभों
जानु तक परिधान पूरित,
केश श्वेताश्वेत ,मुख की
आभ निस्प्रभ हो रही स्फुर '।
मुख पटल पर दीप्त था
संपूर्ण चिंता रेख मन का
एक कर अंगोच्छ पकड़े
पोछता वह स्वेद तन का
दूसरे कर में लिये दृढ़
दंड दल को हाँकता था,
हाय ! अपने स्वार्थ में वह
भूल जाता मर्म उनका।
क्लांत हो संदोह से जो
मेष पीछे छूट जाते
ऊ र् र र् की लंबी स्वरें सुन
शीघ्रता से दौड़ आते
युत्थ में कुछ दौड़ते, कुछ
हाँफते, कुछ ठहरते थे
किंतु जो गति से न चलते
दंड से सम्मान पाते।
वेगमय संदोह था, गतिशील
थे सबके चरण दल
ठहर जाता एक छोटा
मेष शावक अल्प चल-चल
कर्ण जिसके लंब थे, जो
हिल रहे थे लोचनें छू
धूलपूरित परुष पथ पर
डगमगाते पद सुकोमल।
ताप आविल रेणु उसको
लग रही थी द्रवित पावक
पग उठाता पुनः रखता
जा रहा था मेष शावक
देखकर यह दृश्य, दृग से
अश्रु के कुछ बिंदु ढुलके
तप्त हो जैसे पिघल जाता
स्वतः ही मृदुल द्रावक।
मेष शावक की व्यथा ध्वनि
कर रही थी हृदय आहत
अंक में उसको उठाने
शीघ्र ही दौड़े तथागत
पृष्ठ पर फेरे अँगुलियाँ
और निज उर से लगाकर
हो गए फिर बुद्ध के मृदु -
अधर उसके शीश पर नत।
बुद्ध बोले -'सुन गडरिये !
किस दिशा में जा रहे हो ?
व्यर्थ में ही मेष दल पर
दंड क्यों बरसा रहे हो ?
देख हैं कितने सुकोमल
पृष्ठ-पद-मुख-ग्रीव इनके,
इस प्रचंडाप्राह्न में इनको
कहाँ ले जा रहे हो ' ?
अर्द्ध समकोणीय कर निज
दृष्टि उसने त्वरित देखा
बुद्ध के मुख से प्रसारित
हो रही क्षिप्रकर रेखा
रात्रि की अनुभूति शीतल
हो रही मानो दिवस में,
धन्य था वह दर्शनें पा,
धन्य उसकी भाग्यलेखा।
कौन यह सम्मुख खड़ा
मेरे, मनोरम गात्र लेकर ?
गेरुये परिधान पहने
हस्त भिक्षा पात्र लेकर
या धरा पर देव उतरे,
हो रही उसको अचंभा,
मेष शावक को लिये वर
दिव्यतामय रूप लखकर।
केश घुँघराले जटा की
भाँति शोभित शीश पर थे
नेत्र नीलम के सरिस ,
नीलाभ से पक्ष्में प्रखर थे
नासिका मोहक, मनोरम
मुग्धकारी से अधर दल
सुभग ग्रीवा, बाहु, मुख सर्वांग
शान्त्याविल मुखर थे।
अभूतपूर्व कविता अनुज…
जवाब देंहटाएंकिंतु जो गति से न चलते…दंड से सम्मान पाते…उत्कृष्ट पंक्तियाँ!
अनुकल्प तो बहुत होंगे परंतु तुम्हारे लिए तो इतना ही कहूँगी…न भूतो न भविष्यति!
नित नवीन आयाम स्थापित करते रहो!
हृदय से अनंताभार ... अभी तो यह रचना अपूर्ण है ... बारहवीं उत्तीर्ण करने के उपरांत इसे पूर्ण करेंगे ....
हटाएं