● हृदय का आदर्श ●


हृदय का आदर्श टूटा
सैकड़ों आदर्श बनकर।

टूटने से इस हृदय की
कर्णिकाओं में प्रणय की
बढ़ गयी संख्या स्वतः ही
देख , दुर्लभ दर्श बनकर।

स्वांत में स्मृतियाँ पराजित
हो रही क्षण क्षण विभाजित
पुष्ट हो दुख के कणों में
प्रश्न करती मर्श  बनकर।

छोड़ मुझको चल दिये क्यों
संग मेरे छल किये क्यों
आर्य ! तुम तो व्याप्त थे न ?
स्पंद में प्रतिदर्श बनकर।

भस्म हो जाये भले तन
या स्मरण द्रव में गले मन
किंतु तुम संचित रहोगे
नित्य प्राणस्पर्श बनकर।

हृदय का आदर्श टूटा
सैकड़ों आदर्श बनकर।

© अनुकल्प तिवारी 'विक्षिप्तसाधक '

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