● रंभा-अवतरण ●


मंदरगिरि मथनी बना दीर्घ
छू रहा सिंधु पाताल व्योम
वासुकि भुजंग को बना रज्जु
खींचते सुरासुर मिश्र तोम
कच्छप दृढ़ पृष्ठासीन अद्रि
घूमता दक्षिणावर्त वाम,
दानव दल करते बली ! बली !
देवों में गूँजें ओम् ओम्।

वासुकि सहस्त्र-फण को पकड़े
राक्षस समूह करता गर्जन
देवता पुच्छ खींचते मुखर
करता गिरि अर्द्ध वक्र नर्तन
प्रत्यक्ष प्राप्त हो रहे रत्न
लुट रहा सिंधु-वैभवागार,
गतिशील क्रिया, हो रहा त्वरित
निस्सीम जलाकर का भर्जन।

हर-हार फेंकता धूम्र-रेख
चर्मों से होता रक्तस्राव
पर आह ! नहीं होता वीक्षित
फण पर विषाद का लेश भाव
नीतल में कच्छप शिला सदृश
तिष्ठित रत्नाकर-अंक शांत,
मानों भूधर के महाभार
का पड़ा नहीं किंचित प्रभाव।

औचक सागर का फटा वक्ष
मिट गयी वीचियों की दंभा
देखते रह गए उभय-पक्ष
हो रही उन्हें दीर्घाचंभा
उत्ताल सम्पुटों से सहसा
सम्मुख प्रगटी अप्सरा एक,
सौन्दर्य गुणाक्षय सी प्रतीत
वह महासुन्दरी थी  'रंभा '।

हाँ ,वह रंभा.. जिसके चलने
से चल पड़ती सम्पूर्ण सृष्टि
जिसके नेत्रों के कंपमात्र
से मेघ मुग्ध हो करे वृष्टि
श्वासस्पंदन में मद्यगंध
सम्पूर्ण रूप उपमाविहीन
खिल पड़े स्वतः वल्लरी युत्थ
जिस ओर घूमती सौम्य दृष्टि।

रेशमी वस्त्र मुक्ताविजड़ित
मरकतचूर्णाविल रजतरचित
कंचुकी मनोरम शिल्पोत्तम
कटि क्षीण मंजुकरघनीलसित
कटि से पदोच्च तक करे लास्य
परिधानों की अंतिम सीमा,
कुंतल चूड़ामणियुक्त रुचिर
पद-पद्म-पादुका-गति-मंद्रित।

हो रही योजनों तक अबाध
पाटल-पटवासक-गंध-स्राव
मणिबंधलसित बहु-काँच-वलय
नखरंचित-शिल्पांकित-घुमाव
कर्णों में हिलते कर्णफूल
ग्रीवा में भूषित चंद्रहार,
मुक्तालंकृता सुभग बेसरि
छोड़ती कपोलों पर प्रभाव।

केयूरकलित-रुचि-बाहु-युग्म
कंपित कंकण कुंदनमीलित
पद-पाणि-पटल यावकवर्णित
करशाख ऊर्मिका से सज्जित
पद पर प्रहार कर बार-बार
झन झनन-झनन करती नुपूर,
सर्वांग आभरणयुक्त सुरुचि
श्रृंगार अतुल अति आकर्षित।

अंगांग दीप्तमणि के समान
झाँकते झीन वस्त्रों से स्मित
कर्पूर-वर्ण रूपाभिराम
दृग मीन सदृश पक्ष्में पुलकित
नासिका सुघर, कोमल अधरें
लोलित कपोल,दोलित कुंतल,
अश्वत्थ-पत्र सम कर्ण पटें
भ्रू-रेख श्याम नेत्रोच्चांकित।

वह कामप्रिया अतीव रमणी
द्रावक प्रतिमा समान काया
प्रस्फुटित हो गये सुधा-कुंड
जिस ओर पड़ी उसकी छाया
नभ नील नीलमणि सा प्रदीप्त
सर्वत्र ज्योत्सना प्रसृत हुयी,
मादक मादक हो गयी सृष्टि
पाकर उस रूपसि की माया।

सोपान बनी नत वीचि मृदुल
रंभा रखती निज चारु चरण
भीगतें झूमते वस्त्र -छोर
हिल रहे सुमंद्रित अलंकरण
एकोपरांत रख एक चरण
दूसरा उठाती शनैः उच्च,
काया जल-छाया में अभेद
दोनों समान लगते तत्क्षण।

रजनीगंधा सा खिला-खिला
मनमोहक मुख मंडलप्रदेश
कमनीय कपोलों को करता
कंपित कोमल कृश-कृष्ण-केश
जो थे लटके मुख वाम-भाग
जिसको सहेजती वह आती,
रख कर्ण-पल्लवों के ऊपर
जो छूट गयी थी लटें लेश।

प्रतिबिंब दिखायी यों देता
मानों तैरती मत्स्यगंधा
जल-तल पर चलते चपल-चरण
पुलके दुकूल किलके स्कंधा
स्तंभित हो जाती देख दृष्टि
ऊपर रंभा नीचे रंभा,
समतुल्य चपलता दोनों की
कटिक्षीण मनोरम मणिबंधा।

देवता अचंभित चकित असुर
दोनों दल पूर्ण मुग्ध उस पर
रुक गया क्षीरसागर मंथन
सबमें आयी वासना उभर
धिक्कार ! देवता असुरों का
टूटा संयम रंभा को लख,
'कर मुझे वरण','कर मुझे वरण'
दोनों पक्षों में गुंजित स्वर।

© अनुकल्प तिवारी 'विक्षिप्तसाधक'
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टिप्पणियाँ

  1. अतिशय सुभग भावाभिव्यक्ति अनुज…आरंभ से अंत तक कहीं भी लय भंग नहीं होती। समुद्र मंथन का अनुपम वर्णन किया तथा रंभा के रूप का भी सजीव चित्रण कर दिया!
    अभिनंदन 💐

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  2. बेहतरीन अभिव्यक्ति अनु 👌👌

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  3. वाह , बहुत ही बेहतरीन रचना👌👌
    अहा , क्या लाजवाब प्रस्तुति दी है आपने समुद्र मंथन के विषय में 👌👌🙏🙏
    अद्भुत , अद्वितीय , अतुलनीय रचना👌👌💓💓🙏🙏

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    उत्तर
    1. हृदय से अनंताभार आपका... धन्यवादसहित शुभकामनाएं

      हटाएं
  4. सुंदर शब्दों से सुसज्जित उत्कृष्ट कविता। अपूर्व लेखन है भाई ❤️🌹

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  5. रम्भ का दम्भ है टूटा
    अश्रु नयन से फूटा

    विक्षिप्त हुआ यह तन
    शिवधूनि रमाया मन

    हे रम्भा तू हृदयगामिनी
    मोहादिक तू महाविलासिनी
    मै अवधूत जगत है मिथ्या
    शिव बिन जीवन झूठा
    रम्भ का दम्भ है टूटा

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