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जुलाई, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

● व्यर्थता ●

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व्यर्थ है जीवन चरण जब मृत्यु अन्त्य -प्रक्रिया है। गात्र का निर्माण करके चेतना औ ' प्राण भरके नाश कर देता वही क्यों यह सृजन जिसने किया है ? सौंपकर सुकुमार संसृति छीन लेते क्यों बना स्मृति शून्य है परिणाम जिसका देव ! यह कैसी क्रिया है ? मिथ्य है सुख के सभी क्षण तदपि लगते वर विलक्षण किंतु सत्यासत्य मैनें स्वयं को समझा दिया है। आह ! उर विक्षिप्त उर ने और उर के रिक्त सुर ने भूल कर आनंद , पीड़ा- मार्ग को अपना लिया है। व्यर्थ है जीवन चरण जब मृत्यु अन्त्य -प्रक्रिया है। © अनुकल्प तिवारी 'विक्षिप्तसाधक'

● हृदय का आदर्श ●

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हृदय का आदर्श टूटा सैकड़ों आदर्श बनकर। टूटने से इस हृदय की कर्णिकाओं में प्रणय की बढ़ गयी संख्या स्वतः ही देख , दुर्लभ दर्श बनकर। स्वांत में स्मृतियाँ पराजित हो रही क्षण क्षण विभाजित पुष्ट हो दुख के कणों में प्रश्न करती मर्श  बनकर। छोड़ मुझको चल दिये क्यों संग मेरे छल किये क्यों आर्य ! तुम तो व्याप्त थे न ? स्पंद में प्रतिदर्श बनकर। भस्म हो जाये भले तन या स्मरण द्रव में गले मन किंतु तुम संचित रहोगे नित्य प्राणस्पर्श बनकर। हृदय का आदर्श टूटा सैकड़ों आदर्श बनकर। © अनुकल्प तिवारी 'विक्षिप्तसाधक '

● कोकिला से ●

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कूक कर मीठे स्वरों में पूछ मत पीड़ा हृदय की कोकिला ! मैं क्या बताऊँ प्रीति निज कैसे जताऊँ जान पाया ही नहीं वह, भावना मेरे प्रणय की। आज रोने दो न रोको भूल जाने दो न टोको बाँट पाओगी नहीं तुम, वेदना विस्तृत निलय की। चल दिया वह छोड़ पथ पर बिन बताये,उर व्यथित कर अल्प भी आशा न थी इस, निठुर आगामी प्रलय की। व्यग्र उर ने तोड़ डाला लोचनों की स्वप्न माला क्योंकि अब तो व्यर्थ ही थी, सस्मिता स्वप्निल वलय की। कूक कर मीठे स्वरों में पूछ मत पीड़ा हृदय की। © अनुकल्प तिवारी 'विक्षिप्तसाधक'

● विराट करुणा ●

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••••••••••• बुद्धम् शरणं गच्छामि •••••••••• एक वन में वृक्ष के तल  बुद्ध बैठे थे अचंचल भर गया पदचाप से औचक  तभी वह दाव अँचल नील-नीरज-नेत्र वाले  बुद्ध ने देखा पुलककर, 'गडरिया था एक पीछे, अग्र चलते मेष के दल '। देखने से जान पड़ते  मेष संख्या में शताधिक हो रहा क्षण-क्षण तरंगित  सा सभी का पृष्ठ आविक मस्तकें नीचे सभी की स्फीत दिखते पुच्छ केवल, चल रहे इस भाँति मानों  हो गये हो क्लांत आधिक। रूपरेखा से गडरिया दृष्टिगत होता जरातुर चल रहा अतितीव्र निज गंतव्य पाने हेतु आतुर 'उदर से नीचे नितंभों जानु तक परिधान पूरित, केश श्वेताश्वेत ,मुख की आभ निस्प्रभ हो रही स्फुर '। मुख पटल पर दीप्त था संपूर्ण चिंता रेख मन का एक कर अंगोच्छ पकड़े  पोछता वह स्वेद तन का दूसरे कर में लिये दृढ़ दंड दल को हाँकता था, हाय ! अपने स्वार्थ में वह भूल जाता मर्म उनका। क्लांत हो संदोह से जो मेष पीछे छूट जाते ऊ र् र र्  की लंबी स्वरें सुन शीघ्रता से दौड़ आते युत्थ में कुछ दौड़ते, कुछ हाँफते, कुछ ठहरते थे किंतु जो गति से न चलते दंड से सम्मान पाते। वेगमय संदोह था, गतिशील थे सबके चरण...

● रंभा-अवतरण ●

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मंदरगिरि मथनी बना दीर्घ छू रहा सिंधु पाताल व्योम वासुकि भुजंग को बना रज्जु खींचते सुरासुर मिश्र तोम कच्छप दृढ़ पृष्ठासीन अद्रि घूमता दक्षिणावर्त वाम, दानव दल करते बली ! बली ! देवों में गूँजें ओम् ओम्। वासुकि सहस्त्र-फण को पकड़े राक्षस समूह करता गर्जन देवता पुच्छ खींचते मुखर करता गिरि अर्द्ध वक्र नर्तन प्रत्यक्ष प्राप्त हो रहे रत्न लुट रहा सिंधु-वैभवागार, गतिशील क्रिया, हो रहा त्वरित निस्सीम जलाकर का भर्जन। हर-हार फेंकता धूम्र-रेख चर्मों से होता रक्तस्राव पर आह ! नहीं होता वीक्षित फण पर विषाद का लेश भाव नीतल में कच्छप शिला सदृश तिष्ठित रत्नाकर-अंक शांत, मानों भूधर के महाभार का पड़ा नहीं किंचित प्रभाव। औचक सागर का फटा वक्ष मिट गयी वीचियों की दंभा देखते रह गए उभय-पक्ष हो रही उन्हें दीर्घाचंभा उत्ताल सम्पुटों से सहसा सम्मुख प्रगटी अप्सरा एक, सौन्दर्य गुणाक्षय सी प्रतीत वह महासुन्दरी थी  'रंभा '। हाँ ,वह रंभा.. जिसके चलने से चल पड़ती सम्पूर्ण सृष्टि जिसके नेत्रों के कंपमात्र से मेघ मुग्ध हो करे वृष्टि श्वासस्पंदन में मद्यगंध सम्पूर्ण रूप उपमाविहीन खिल पड़े स्वतः वल्लरी युत्थ ...